फ़ोटो बुलेटिन – अगस्त 2025
फ़ोटो बुलेटिन – अगस्त 2025

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संकलन और संपादन – निकिता देवासे`

चक्रीघाट – बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि पैदा होने लगी है।

– कोमल गौतम

चक्रीघाट बेड़ा अब स्थानांतरित होकर फिर से अपनी जगह पर लौट आया है।

बरसात शुरू हो जाने के कारण, गर्मियों में हुआ स्थानांतरण अब रुक गया है, और अब सभी परिवार अपने झोपड़ियों में वापस आ गए हैं। उनकी झोपड़ियाँ भी फिर से बनकर तैयार हो गई हैं। साथ ही, हमारे द्वारा बेड़े पर लिए जाने वाले class भी फिर से शुरू हो गई हैं। पिछले साल की स्थिति की तुलना में, इस साल बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि पैदा हुई है। पिछले साल जब हम बेड़े पर पढ़ाने जाते थे, तो बच्चे ज्यादा उत्साह नहीं दिखाते थे। वे देर से आते थे, कुछ तो आने से बचते थे। उन्हें पढ़ाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। “मुझे नहीं पढ़ना”, “मुझे नहीं लिखना” ऐसी बातें करते थे, आपस में झगड़ते थे, मारपीट करते थे। बहुत सारी गतिविधियों में भी वे हिस्सा नहीं लेते थे।

लेकिन इस साल की तस्वीर पूरी तरह से अलग है। मैं और नविनता जब पहले दिन बेड़े पर पहुँचे, तो बच्चे पहले से ही नहा-धोकर, साफ-सुथरे कपड़े पहनकर बैठे थे। जैसे ही उन्होंने हमें देखा, उत्साह से कहने लगे “हम तो आपसे पहले ही आ गए, मैडम! हमें अभी पढ़ाओ!”

तभी मुझे पिछले साल की स्थिति याद आ गई। गर्मी के दौरान ‘रियाज़ घर’ पर लिए गए कक्षाएं, साहसिक यात्राएं (adventure visits), बाहरी भ्रमण (external visits), और नई-नई चीजें सीखने के मौके इन सबका बड़ा असर पड़ा है। इन सभी प्रयासों ने न केवल बच्चों में पढ़ने की इच्छा जगाई है, बल्कि उन्हें सीखने की खुशी भी महसूस कराई है।

आज, पहले ही दिन से बच्चे खुद सीखने के लिए इतने उत्सुक हैं! उनका बदला हुआ नजरिया देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। इसीलिए हमने पहले दिन से ही बेड़े पर कक्षा लेना शुरू कर दिया। अब हर दिन सुबह 10 बजे बच्चे हँसते-खेलते, पूरे उत्साह के साथ सीखने के लिए तैयार रहते हैं। किताबों से परे का शिक्षण, अनुभव से मिलने वाली सीख, और मजेदार गतिविधियाँ इन सबकी वजह से बच्चों का शिक्षा को देखने का नजरिया ही बदल गया है।

आज ये बच्चे न सिर्फ कक्षा में भाग लेते हैं, बल्कि सवाल पूछते हैं, और अपने सपनों को पूरा करने के लिए सीखने को तैयार हैं।

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ठणठण – “बच्चों के साथ प्यारी दोस्ती”

– डेविड सूर्यवंशी

बरसात शुरू हो गई है, और कुछ महीने पहले ये लोग चारे की तलाश में जंगल में जाकर रहने लगे थे।

वहाँ उनका पूरा समुदाय अपने परिवारों के साथ गायों की देखभाल के काम में व्यस्त था। अब बारिश के कारण वे सभी फिर से अपनी जगह लौट आए हैं। उनकी झोपड़ियाँ भी दोबारा बनकर तैयार हो चुकी हैं। और हम भी, एक बार फिर, बेड़े में जाकर पढ़ाना शुरू कर चुके हैं। मेरे पास पूर्व-प्राथमिक (PrePrimary) आयु वर्ग के छोटे बच्चे हैं। उम्र में बहुत ही छोटे लगभग 3 से 6 साल के बीच के। उनकी मासूमियत के साथ-साथ उनका सीखना भी एक बहुत ही खास और ध्यान से संभालने वाली प्रक्रिया है।

मैंने अभी हाल ही में उनके साथ काम करना शुरू किया था। मन में लगातार एक ही सवाल चल रहा था ।”मैं इन प्यारे नन्हे बच्चों को कैसे पढ़ाऊँगा?”
थोड़ा डर, थोड़ी झिझक… लेकिन फिर भी, मैं अपने साथियों के साथ उनकी झोपड़ियों तक पहुँचा। तभी मैंने देखा कि बच्चे मुझे देखकर थोड़ा सहम गए थे।
वे सभी अपनी जानी-पहचानी ताई (दीदी) के पीछे छिपकर खड़े थे। तभी मैंने तय किया पहले इनसे दोस्ती करना ज़रूरी है।

मैंने उनके घरों में जाकर बातचीत शुरू की।परिवार वालों से बात की। धीरे-धीरे संवाद आगे बढ़ने लगा, और बच्चों से भी मैं खेल-खेल में बात करने लगा। पूर्व-प्राथमिक उम्र के बच्चों के साथ संवाद और पढ़ाई की असली कुंजी ‘खेल’ ही होती है। इसलिए मैंने कुछ ऐसे खास खेल चुने जिनमें नाम लेना, हाथ-पैर हिलाना, गाने गाना जैसी बातें हों जो उन्हें पसंद आएँ और उन्हें सीखने की ओर प्रेरित करें।

थोड़ी ही देर में बच्चे खुलने लगे। वे हँसने लगे, उन्हें मज़ा आने लगा। उनके मासूम चेहरों की मुस्कान देखकर मेरे मन में भी बहुत खुशी भर गई। कुछ ही दिन बीते, और मैंने देखा कि एक बड़ा बदलाव आ गया है। अब जब मैं बेड़े पर पहुँचता हूँ, तो ये बच्चे मुझे देखकर दौड़ते हुए आते हैं! कुछ तो मेरा हाथ पकड़कर सीधा अपनी झोपड़ी तक ले जाते हैं। तुलसी, किंजल, गोपी, जिगर, आरती, हरेश ऐसे कई प्यारे नामों वाले बच्चे हैं, जो सब अपने-अपने जोश और उत्साह में मग्न रहते हैं।

धीरे-धीरे हमारी दोस्ती खिलने लगी। अब जब मैं आता हूँ, तो बच्चे झोपड़ी से बाहर निकलकर खुशी से बात करते हैं, खेलना शुरू कर देते हैं।
मैं उनके साथ खेलता हूँ, उनकी भावनाएँ समझता हूँ, उन्हें हँसाता हूँ… और खुद-ब-खुद उनके जीवन का हिस्सा बन जाता हूँ। आज मैं उनका शिक्षक तो हूँ ही, लेकिन एक दोस्त भी बन गया हूँ उनके साथ खेलने वाला, सिखाने वाला… और खुद भी हर दिन कुछ नया सीखने वाला।

कभी-कभी, पढ़ाते-पढ़ाते मैं खुद ही फिर से बचपन जीने लगता हूँ समय कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता! इन नन्हे बच्चों को पढ़ाना और उनसे प्यारी दोस्ती करना ही सच्चा शिक्षण है। उनकी मासूम मुस्कान में, उनकी चमकती आँखों में, मुझे मेरा खोया हुआ बचपन फिर से मिल गया।

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पहचान से परे एक रिश्ता – एक अनुभव

असोला – प्राची बोरेकर

अब तीन हफ्ते हो गए हैं, जबसे मैंने असोला सेंटर पर काम करना शुरू किया है।

इस यात्रा की शुरुआत ही इतनी खूबसूरत थी कि इसके बाद हर दिन मुझे कुछ न कुछ नया सिखा रहा है। शुरुआत में मैं थोड़ी भ्रमित थी नया स्थान, अनजाने लोग, और मन में ढेरों सवाल। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, एक अलग-सी अपनत्व की भावना महसूस होने लगी।

हमने अपने काम की शुरुआत समुदाय भेंटों से की।लोगों से संवाद करना शुरू में थोड़ा झिझकभरा था। मन में सवाल थे “क्या हमें बात करनी चाहिए?”,
क्या वे हमें स्वीकार करेंगे?” लेकिन बातचीत की शुरुआत के साथ ही धीरे-धीरे एक आत्मीयता बनने लगी। लोग हँसकर बात करने लगे, अपने अनुभव साझा करने लगे, और एक आत्मीय रिश्ता बनता गया।

एक बार हम बेड़े की ओर जा रहे थे, तो रास्ते में दादाजी मिले। उन्होंने कहा, “चलो, मैं छोड़ देता हूँ।” उनकी उस छोटी-सी लिफ्ट ने न सिर्फ फासला कम किया, बल्कि दिलों को भी करीब ला दिया। उस साधारण से पल में, एक अनजाने व्यक्ति के साथ “पहचान से परे एक रिश्ता बन गया। इस बीच, हमने समुदाय में अलग-अलग मज़ेदार गतिविधियाँ और खेल करवाए। बच्चों के लिए खेल, कहानियाँ, चित्र बनाना ये सब करते हुए हमें भी बहुत मज़ा आया।
लोग हँसे, खेले, खुलकर बातचीत की और उस आनंद में हमारा भी मन भीग गया।

बच्चों के साथ का अनुभव तो और भी खास था। शुरुआत में उनके नाम याद रखना थोड़ा मुश्किल लग रहा था। उन्होंने हमें एकदम “नए” के रूप में देखा था, लेकिन बस दो-चार दिनों में ही वे हमसे घुल-मिल गए हम उनके पास पहुँचने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सच कहूँ तो उन्होंने ही हमारे पास आकर हमें अपना बना लिया।

उन्हें अभी तक मेरा नाम सही से नहीं आता कोई “प्राची” कहता है, कोई “पाची”… लेकिन उनके उस मासूम प्रयास में जो मिठास है, वही मेरे लिए सच्ची खुशी है। हर दिन एक नया अनुभव, एक नई बातचीत, एक नया रिश्ता बन रहा है और यहीं से हमारी असली यात्रा शुरू हो रही है।

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सिखाते हुए मैंने भी सीखा

बोथली – रोहिणी कालभूत

मेरा बोथली बेडा केंद्र पर काम शुरू हुए एक महीना हो गया है। यह समय भले ही छोटा हो, लेकिन अनुभवों से भरपूर रहा है।

रोज़ कुछ नया सीखने को मिलता है, नई बातें समझ में आती हैं, और खुद में एक सकारात्मक बदलाव नजर आता है। यहाँ के बच्चों को स्कूल जाने में डर लगता था। उनके लिए स्कूल एक डरावना स्थान था। “स्कूल में शिक्षक चिल्लाएंगे, सजा देंगे…” इस डर के कारण बच्चे स्कूल की तरफ बढ़ने को तैयार नहीं थे।

मेरा असली सफर यहीं से शुरू हुआ सिर्फ पढ़ाने का नहीं, बल्कि बच्चों को फिर से स्कूल की ओर ले जाने का। मैंने सोचा कि पहले बच्चों में विश्वास पैदा करना होगा। उनके साथ खेलने लगी, बातें करने लगी, उनकी भाषा में संवाद शुरू किया। वे अपनापन महसूस करने लगे, और मैं भी उन्हीं में से एक बन गया।

इसके बाद मैं उनके अभिभावकों तक पहुंचा। हर बच्चे के घर जाकर उनके माता-पिता से बातचीत की। बच्चों के स्कूल न जाने के कारणों पर चर्चा की।
और “हर घर जाकर बच्चे को स्कूल ले जाना शुरू किया।” अब बहुत सारे बच्चे खुशी-खुशी स्कूल आते हैं। कक्षा में बैठते हैं, सुनते हैं, उत्तर देने की कोशिश करते हैं। उनके आँखों में अब डर नहीं, बल्कि आत्मविश्वास नजर आने लगा है।

इन दिनों बच्चों को पढ़ाते हुए मैंने खुद भी बहुत कुछ सीखा है। संवाद केवल शब्द नहीं, बल्कि समझने की प्रक्रिया है। समझना मतलब उनकी जगह खुद को रखकर उनकी नज़रिए को समझना। यह सारा सबक मुझे रोज़ नया मिलता है। वे सीखते हैं, और उनके साथ मेरा “सीखना” और “सिखाने” का सफर जारी है।

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