संकलन आणि संपादन – निकिता देवासे
रियाज़घर – रियाज़घर क्या होता है?
– पल्लवी शंभरकर

“रियाज़घर एक ऐसी जगह है जहाँ 9 से 16 साल के बच्चों को एक साथ लाकर उन्हें नई-नई चीज़ें सिखाई जाती हैं। “बच्चे अलग-अलग जगहों पर घूमने जाते हैं,(exposure visit), “बाहर से खास लोग आकर उन्हें कुछ सिखाते हैं (external visit), किताबें पढ़ना, खेलना और बहुत सी मज़ेदार एक्टिविटीज होती हैं।”
“इस बार रियाज़घर का मुख्य उद्दिष्ट बच्चों को इंग्लिश सिखाना था। बच्चों को फॉनिक्स, वॉवेल्स, सेंटेंस बनाना जैसे विषय सिखाए गए। साथ ही रोज़ाना भाषा और गणित की क्लासेस भी होती थीं।
गर्मियों की छुट्टियों में रियाज़घर शुरू करना शुरुआत में थोड़ा मुश्किल लगा। कुछ बच्चे बाहर चले गए थे, तो मन में चिंता थी कि ‘क्या बच्चे आएंगे?’, ‘माता-पिता को कैसे समझाएँ?’ ऐसे कई सवाल थे। लेकिन सभी फेलोज़ ने मिलकर माता-पिता से बात की, समझाया, और धीरे-धीरे बच्चे रियाज़घर आने लगे। सबसे खुशी की बात ये थी कि इस बार लड़कियों की संख्या लड़कों से ज़्यादा थी, जो गर्व और खुशी देने वाली बात थी।
रियाज़घर का दिन सुबह 8 बजे शुरू होता था, जब बच्चों को अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होती थी। इसके बाद नाश्ता होता था, फिर 9 बजे से भाषा की क्लास, प्रार्थना, फीलिंग शेयर करना और 1 बजे तक गणित और इंग्लिश की क्लास होती थी। फिर दोपहर का खाना और उसके बाद एक्सपोज़र विज़िट्स या बाहर से कोई आने वाला गेस्ट होता था। दिन के अंत में बच्चों की reflection meeting होती थी और फिर उनकी पसंद के हिसाब से डांस, नाटक, किताबें पढ़ना, खेल या होमवर्क जैसे एक्टिविटीज होती थीं।
हर दिन बच्चों के चेहरे पर एक नई खुशी और उत्साह दिखता था। उनकी कुछ नया सीखने की जिज्ञासा देखकर दिल खुश हो जाता था। कुछ बच्चे शुरू में थोड़े शर्माते थे, लेकिन धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ने लगा।
बच्चों को अलग-अलग जगहों पर ले जाया गया, जहाँ उन्होंने बहुत कुछ सीखा। Alag Angle में बच्चों ने मिट्टी से बैल बनाना सीखा और अपनी क्रिएटिविटी दिखाकर तरह-तरह के जानवर और चीजें बनाई। Raman Science Center, Parle G फैक्टरी और पुलिस स्टेशन जैसी जगहों पर जाकर बच्चों के मन में जो सवाल थे, उनके जवाब मिले। जैसे बिस्किट कैसे बनते हैं, पुलिस बनने के लिए क्या पढ़ाई करनी होती है, या कोई टीचर कैसे बनता है – ऐसे सवालों के जवाब उन्हें वहां मिले।
यह अनुभव सिर्फ पढ़ाई से जुड़ा नहीं था, बल्कि बच्चों के मन और आत्मा को एक नई रोशनी देने वाला था। बच्चों के चेहरों पर बढ़ता आत्मविश्वास और खुशी देखकर ऐसा लगा कि हमारे प्रयासों को सही दिशा और सफलता मिल गई है।”
“प्रयास – एक नया अनुभव”
कोमल गौतम

“‘प्रयास’ का नाम मुझे पहले पता नहीं था। लेकिन जान्हवी ताई ने हमें इसके बारे में बताया। उन्होंने कहा कि ‘प्रयास’ अमरावती में एक संस्था है जो छोटे बच्चों के लिए शिविर लगाती है।”
यह शिविर बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए था। उन्होंने अपने भारवाड़ बस्ती के कुछ बच्चों को अमरावती बुलाया था। हम में से चार बच्चे भेजे जाने थे और उनके साथ एक फेलो जाना था। जान्हवी ताई ने हमें सोचने के लिए थोड़ा समय दिया कि कौन जाएगा?
मैंने यह जिम्मेदारी लेने का फैसला किया। यह मेरा पहला अनुभव था। 19 अप्रैल को बेड्या के बच्चों के माता-पिता उन्हें नागपुर से लेकर आए। मैं विजय, महेश, राहुल और छगन इन चार बच्चों को लेकर अमरावती के लिए निकला। यह मेरा पहला ऐसा अनुभव था जहां मैं बच्चों की पूरी जिम्मेदारी लेकर बाहर जा रहा था। मन में थोड़ी डर थी, “वहाँ पहुंचकर क्या होगा?”, “कैसे होगा?”, “सब ठीक से होगा या नहीं?” लेकिन बच्चों का उत्साह, जान्हवी ताई का फोन पर मार्गदर्शन और मेरी डर को पीछे छोड़ते हुए हम रात 8 बजे ‘प्रयास’ पहुंचे। इसलिए सब कुछ आसानी से हो गया।
वहाँ लगभग 9 से 20 साल के कई बच्चे थे। अगले दिन (रविवार) सभी बच्चों के माता-पिता उन्हें छोड़ने आए। सावजी सर, जो इस शिविर के आयोजक थे, ने एक परिचयात्मक मीटिंग ली। उन्होंने ‘प्रयास’ के बारे में बताया कि यह शिविर बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए आयोजित किया गया है। कुछ मजेदार माता-पिता-बच्चों की एक्टिविटी भी हुईं।
मेरी भूमिका वहां स्वयंसेवक की थी। बच्चों का ध्यान रखना और उन्हें मार्गदर्शन देना मेरा मुख्य काम था।
दूसरे दिन से ही बच्चों के सेशन शुरू हो गए। रोजाना बच्चों के अलग-अलग सेशन्स होते थे – व्यक्तित्व विकास, बातचीत के कौशल, व्यावसायिक समझ। बच्चों ने तरबूज बेचे, किताबें बेचीं, छोटे व्यवसायी की इंटरव्यू की। तीन दिनों तक बच्चों को बाहर ले जाया गया, जैसे जंगल दर्शन, विभिन्न कंपनियों की यात्राएं आदि। सेशन्स में बच्चों को व्यक्तित्व विकास और व्यवहारिक कौशल पर मार्गदर्शन मिला। उदाहरण के लिए, बच्चों को तरबूज बेचने को कहा गया। फिर किताबें बेचनी थीं, सड़क पर छोटे व्यवसाय करने वालों का इंटरव्यू लेना था, और फिर अधिकारियों का इंटरव्यू भी लेना था।
इन सभी अनुभवों से बच्चों का आत्मविश्वास बहुत बढ़ा। उनका डर कम हुआ और वे खुद से बात करने लगे। भारवाड़ बस्ती के बच्चों को नई जगहें देखने का मौका मिला और बाहरी दुनिया की जानकारी मिली। इस पूरे अनुभव से बच्चों को समझ आया कि भविष्य में क्या बनना है और इसके लिए क्या करना होगा।
सभी कार्य उन्होंने पूरा किया। उन्हें कई नई चीजें सीखने को मिलीं और मुझे भी बहुत कुछ सीखने को मिला। इन अनुभवों ने उनमें आत्मविश्वास जगाया। जो पहले डरते थे, वे अब लोगों से बात करने लगे, सवाल पूछने लगे। उनकी आँखें अब सिर्फ देखने के लिए नहीं, बल्कि सपने देखने लगी थीं।
यह केवल एक शिविर नहीं था, बल्कि खुद को खोजने का अवसर था। न केवल बच्चों का, बल्कि मेरा भी व्यक्तित्व बना। बच्चों के साथ काम करने के अनुभवों ने मुझे एक शिक्षक के रूप में अधिक जागरूक, संवेदनशील और प्रभावी बनाया।
“उमड़ती जिज्ञासा”
– प्रीतम नेहारे

“गर्मी आने पर जंगल के झोपड़ियों में हलचल शुरू हो जाती है। पानी की कमी और गाय के चारे की तलाश में कई झोपड़ियां अपनी जगह बदलती हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। सभी झोपड़ियां अलग-अलग दिशा में स्थानांतरित हो गईं।”
इसलिए हर झोपड़ी तक पहुंचना एक साथ संभव नहीं था। अलग-अलग दिशाओं में जाने के कारण पूरा समुदाय बिखर गया था।
ऐसे हालात में हमें हर साल की तरह सभी झोपड़ियों के बच्चों को एक साथ बुलाकर उनकी पढ़ाई और अनुभव के लिए एक अवसर कार्यक्रम आयोजित करना था। इसलिए ‘रियाज़घर’ नाम से हमारे शैक्षिक कार्यक्रम के तहत 15 दिनों का आवासीय प्रोजेक्ट नागपुर में आयोजित किया गया।
इस शिविर में बच्चों को रोज नए-नए अनुभव देने का हमारा उद्देश्य था। केवल किताबों की पढ़ाई नहीं, बल्कि असली अनुभव, क्रियाशीलता और अवलोकन पर आधारित सीखना हमारी सोच थी।
रोजाना हम बच्चों को विभिन्न जगहों पर देखने के लिए लेकर जाते थे। ALG Angle जैसी क्रिएटिव जगह पर गए, जहां बच्चों ने मिट्टी से विभिन्न खिलौने बनाए और अलग-अलग कला देखी। ‘Reading कीड़ा’ नाम की किताबों की प्यारी दुनिया में बच्चे खो गए। उन्हें पढ़ने की आदत लगने लगी। Parle-G कंपनी जाकर उन्होंने उत्पाद बनाने की प्रक्रिया देखी।
इन सभी जगहों में एक खास और यादगार मुलाकात थी – Raman Science Center की। वहाँ विज्ञान से जुड़े प्रयोग, 3D शो, सौरमंडल, आकाशगंगा और कई ऐसी चीज़ें थीं जो बच्चों की जिज्ञासा को बढ़ाती थीं। बच्चों की आंखों में चमक थी और उनके चेहरे पर उत्सुकता साफ दिखाई दे रही थी।
वह मुलाकात कुछ जादुई सी थी। बच्चे अपने-अपने सवाल पूछने लगे।
कान्हा ने पूछा, “ये आकाश में कैसे जाते हैं?”
ऋतु पूछ रही थी, “ये ग्रह कैसे घूमते हैं?”
उन शब्दों में नई उम्मीद और नई ऊर्जा की शुरुआत थी।
उनके मन में बनी यह उत्सुकता हमारे लिए एक बड़ी सफलता थी। सौरमंडल और आकाश की रहस्यमयता को देखकर उन्होंने एक नया संसार महसूस किया। इस अनुभव ने उनके सोचने के दायरे को बढ़ाया। सिर्फ देखने-समझने से नहीं, बल्कि कई कल्पनाएँ उनके मन में जागीं।
यह 15 दिन उनके जीवन में एक सुंदर याद बनकर हमेशा रहेगी। और हमारे लिए यह एक ऐसा अनुभव था, जिसने उनके भविष्य को आकार देने में मदद की।
निवड प्रक्रिया – “शोध… नए साथी, नई संभावनाएं”
निखिल, निकिता

“पिछले छह से सात महीने से मैं और निकिता अपनी संस्था के लिए नए फेलोज़ की तलाश में लगे थे। यह पूरी प्रक्रिया सीखने के नजरिए से बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई।”
कई चुनौतियाँ आईं, लेकिन उनका सामना कैसे करना है और आगे कैसे बढ़ना है, यह सीखने को मिला। हर कदम पर एक नया अनुभव, नई सीख और जीने के लिए एक नया आत्मविश्वास मिला। यह खोज केवल फेलोज़ तक सीमित नहीं थी, बल्कि हमारी खुद की बढ़ोतरी का हिस्सा थी।
शुरुआती तीन महीनों में हमने नागपुर के आसपास के अलग-अलग गांवों में जाकर वहां की आंगनवाड़ी सेविका, ग्राम पंचायत सदस्य और सरपंच साहेब से मुलाकात की। उन्हें हमारी संस्था के बारे में जानकारी दी, संवाद किया और गांव के उन युवा-युवतियों तक जानकारी पहुँचाने का निवेदन किया जो स्नातक हो चुके, शिक्षित और उत्साही थे।
इसके बाद गांव-गांव से हमारा अगला कदम कॉलेज की तरफ बढ़ा। हमने कॉलेजों का दौरा किया, वहां सेशन्स लेकर छात्रों को फेलोशिप के बारे में बताया। फेलोशिप में हिस्सा लेने की पहली प्रक्रिया थी रजिस्ट्रेशन फॉर्म भरना, इसी से हमने शुरुआत की।
फिर सोशल मीडिया के जरिए फेसबुक और इंस्टाग्राम पर फेलोशिप की जानकारी और कुछ फेलो की कहानियाँ साझा कीं। इसका हमें बहुत फायदा हुआ। यह जानकारी बड़ी संख्या में लोगों तक पहुँची और सबसे ज्यादा रजिस्ट्रेशन सोशल मीडिया से आए।
फिर अगला चरण था, रजिस्ट्रेशन करने वाले उम्मीदवारों को आवेदन फॉर्म भरने के लिए आवश्यक जानकारी देना। इसके लिए हमने सभी उम्मीदवारों से संपर्क करने का फैसला किया। उस समय हमारे पास कुल 1765 रजिस्ट्रेशन फॉर्म्स थे। इसलिए हमने अपनी टीम बढ़ाई और कॉल्स सबको बांटे।
उसके बाद हमें बहुत सारे आवेदन मिले। उम्मीदवारों को प्रीवर्क दिया गया। फिर दो दिनों का वर्कशॉप आयोजित किया गया। और अंत में, जो फेलोज़ हम ढूंढ़ रहे थे, वे हमें मिल गए। इस प्रक्रिया में इंटरव्यू हुए और सही फेलोज़ का चयन हुआ। उस वक्त, हमें केवल उम्मीदवार नहीं मिले, बल्कि एक नई ऊर्जा, एक नई टीम मिली।
इस पूरी प्रक्रिया से जो अनुभव मिला, वह वाकई आत्मविश्वास बढ़ाने वाला था।
2025-26 संस्था (इन्स्टिट्यूट): हिम्मत, आत्ममंथन और रिश्तों के ज़रिए खुद को तलाशने की यात्रा
जान्हवी ,पायल

इस साल हमारा इन्स्टिट्यूट एक अलग ही ऊंचाई पर पहुंचा। हमारी संस्था की शुरुआत इस बार एक नए नजरिए से हुई। ‘कैसे सिखाया जाएगा’ से ज़्यादा हमने इस पर ध्यान दिया कि ‘कैसा महसूस कराया जाएगा’।
इस साल का हमारा इन्स्टिट्यूट एक अलग ही ऊँचाई तक पहुँचा। हमारी संस्था की शुरुआत इस बार एक नए दृष्टिकोण से हुई। ‘कैसे सिखाया जाएगा’ से ज़्यादा, हमने इस पर ध्यान दिया कि ‘कैसा महसूस कराया जाएगा’।
इस साल की संकल्पना तीन महत्वपूर्ण स्तंभों पर आधारित थी धैर्य (courage), आत्मचिंतन (reflection), और रिश्ते (relationship)। यह सोच सिर्फ डिज़ाइन तक सीमित नहीं रही, बल्कि इन्स्टिट्यूट की हर जगह, हर हफ्ते की थीम और हर एक अनुभव में गहराई से समाई रही। इससे बच्चों को खुद को समझने, खुलकर व्यक्त होने और खुद को महसूस करने की एक अनमोल जगह मिली।
हर दिन की संरचना बहुत सोच-समझकर बनाई गई थी “2 मार्गदर्शित सेशन्स, 1 चिंतन सत्र और 1 स्व-अध्ययन” ऐसा संतुलन रखा गया था। गाइडेड स्पेसेज़ में बच्चों ने नई कल्पनाएँ खोजीं, चर्चाओं में भाग लिया। रिफ्लेक्शन ने उन्हें अपने अनुभवों को गहराई से देखने में मदद की, और सेल्फ-स्टडी ने उन्हें अपनी गति से सीखने और अपने भीतर की आवाज़ से जुड़ने की आज़ादी दी।
पहले जिन बदलावों को महसूस करने में हमें तीन महीने लगते थे, वे इस बार कुछ ही हफ्तों में नज़र आने लगे। इसका एक बड़ा कारण थी मजबूत पूर्व-तैयारी। इस साल हमने planning, session design, energizers और content की पहले से ही ठोस योजना बनाई थी। गानों, एक्टिविटीज़, समय और स्ट्रक्चर के लिए एक पूरा फोल्डर तैयार किया गया था। लगातार रियाज़ और तैयारी की वजह से फेलोज़ को आत्मविश्वास मिला, और उन्होंने ये सेशन्स संवेदनशीलता और आत्मविश्वास के साथ लिए।
Pre-primary और primary ग्रुप के बच्चों के लिए जो सेशन्स लिए गए, उनसे फेलोज़ को यह समझ आया कि छोटे बच्चों से संवाद कैसे करना है, सिखाने की रूपरेखा कैसी होती है और ज़िम्मेदारी कैसे निभानी है जिसका सीधा लाभ उन्हें फील्ड पर जाने से पहले ही मिला।
इस बार लड़के और लड़कियाँ समान संख्या में शामिल हुए थे, जिससे हर गतिविधि में समानता का अनुभव हुआ। दरबार और सांस्कृतिक स्पेसेज़ में उनका भाग लेना बेहद स्वाभाविक, दिल से और रचनात्मकता से भरा हुआ था।
जब बच्चे इन्स्टिट्यूट में आए, तब उनके मन में कई सवाल थे
“इतना बड़ा ट्रेनिंग एक महीने में क्या दे पाएगा?”, “क्या यह सच में फायदेमंद होगा?”
लेकिन इन्स्टिट्यूट खत्म होने के बाद उनके शब्दों में, हावभाव में और उनके अनुभव साझा करने में एक गहरा, साफ़ बदलाव दिखाई देने लगा।
और सबसे बड़ी बात यहाँ आकर उन्हें एक ऐसी जगह मिली जहाँ वे मन से खुलकर बोल सकते हैं, खुद को व्यक्त कर सकते हैं।
जहाँ कोई डर नहीं, कोई शर्म नहीं सिर्फ खुद को समझने और खोजने की सच्ची शुरुआत होती है।
यही इस इन्स्टिट्यूट की असली ताकत है। [/read_more]