संकलन आणि संपादन – निकिता देवासे
सोनखांब – गौरी की प्रेरणादायक कहानी
-प्रीतम नेहारे

गौरी को बचपन से ही पढ़ाई का बहुत शौक था। उसने कक्षा 7वीं सफलतापूर्वक पूरी की। शिक्षा को लेकर परिवार की ओर से मना किया जा रहा था, फिर भी वह पढ़ते रहना चाहती थी।
अब वह 8वीं कक्षा में पहुँच गई थी, लेकिन घरवालों को उसे आगे नहीं पढ़ाना था। यहीं से उसके असली सफर की शुरुआत हुई।
माता-पिता ने कई बार मना किया था, लेकिन गौरी दृढ़ थी “मुझे पढ़ना ही है!” घरवालों का कहना था ,“अब उसे घर का काम सीखना चाहिए। हमारी बेटी बड़ी हो गई है। उसकी पढ़ाई यहीं रुकनी चाहिए। अब सिर्फ मयूर और तेजल को ही पढ़ाना है।”
दिन ऐसे ही बीत रहे थे, लेकिन कोई भी उसे स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए तैयार नहीं था। घरवालों के मन में पढ़ाई को लेकर कोई ठोस इरादा नहीं था। गौरी सोचती – “मेरे सपने इतने छोटे नहीं हैं। मैं ज़रूर कुछ अलग करूँगी।”
इसी समय हमारा ‘रियाज़ घर प्रोजेक्ट’ शुरू हुआ। बच्चों से मिलने हम बस्ती में गए थे, तब गौरी का दाखिला कराने की ज़िम्मेदारी हमने ली। उसके माता-पिता को शिक्षा का महत्व समझाना पहला कदम था। उन्हें मनाना मुश्किल था, पर असंभव नहीं। हमने लगातार प्रयास किए, उसका टी.सी. और बाकी कागज़ात जुटाए और आखिरकार उसे मेटपांजरा की स्कूल में 8वीं कक्षा में दाखिला दिलाया।
आज गौरी नियमित रूप से स्कूल जाती है, रोज़ कुछ नया सीखती है। उसे पढ़ते हुए, घर पर मेहनत करते हुए और उसकी प्रगति देखकर उसके माता-पिता गर्व से कहते हैं – “मेरी बेटी की पढ़ाई रुकनी नहीं चाहिए!”
धीरे-धीरे घर का माहौल भी बदल गया। शुरुआत में पढ़ाई का विरोध करने वाले ही अब उसके साथ मज़बूती से खड़े थे। माता-पिता को समझ में आया कि बेटी की पढ़ाई रोकना यानी उसके सपनों को छीन लेना है। परिस्थिति चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हो, अगर हार न मानकर डटकर सामना किया जाए तो सफलता ज़रूर मिलती है। गौरी की कहानी इसका जीवंत उदाहरण है।
आज वह खुद स्कूल जाती है, पढ़ती है और अपने सपने सँवारती है। उसका सपना है कि बड़ी होकर शिक्षिका बने।
निश्चित ही उसके इन सपनों को पंख मिलेंगे!
चक्रिघाट – बच्चों का उकळवाही स्कूल का अनुभव
– नविनता डोंगरे

बेड़े पर पहुँचने के बाद हमें देखकर बच्चों को बहुत खुशी हुई। पहली बार स्कूल जाने वाले थे, इसलिए सबके चेहरों पर उत्सुकता और आनंद दिख रहा था।
स्कूल के नए-नए कपड़े पहनकर बच्चे हमें दिखा रहे थे। अच्छी तैयारी होने की वजह से बच्चे बहुत सुंदर लग रहे थे। हर बच्चे को देखते समय मन खुशी से भर जाता था। बच्चों के चेहरों पर की भावनाएँ बहुत ही सुंदर थीं। माता-पिता भी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए उत्सुक थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि बच्चों को तो पढ़ना ही है, लेकिन माता-पिता भी अपना काम छोड़कर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रहे थे। बच्चों को स्कूल ले जाते समय माता-पिता के चेहरों पर भी खुशी झलक रही थी।
सभी बच्चे तैयारी करके बैठ गए थे और अब गाड़ी आने का इंतजार कर रहे थे। गाड़ी का इंतजार करते समय बच्चे उत्साह से कह रहे थे – “मैडम, गाड़ी कब आएगी?” यह सुनकर बहुत अच्छा लग रहा था। बच्चों के माता-पिता भी बच्चों को स्कूल भेजते समय प्यार से कह रहे थे – “स्कूल में अच्छे से रहना, पढ़ाई करना।” यह सुनते समय मन भर आया।
गाड़ी आने पर बच्चे बहुत खुश हो गए। गाड़ी में बैठने के लिए सभी ने छोटी-सी दौड़भाग भी की। गाड़ी में बैठने के बाद बच्चे आपस में बातें करने लगे – “स्कूल में जाएंगे तो नए दोस्त बनेंगे!” बड़े बच्चे छोटे बच्चों को समझा रहे थे “स्कूल में शांत रहना, मस्ती मत करना।” फिर भी मन में एक सवाल बार-बार आता था “क्या बच्चे स्कूल में आपस में मिल-जुलकर रहेंगे? कहीं झगड़ा तो नहीं करेंगे?” लेकिन दिन जैसे-जैसे आगे बढ़ा, वैसे-वैसे ये सवाल धीरे-धीरे खत्म हो गए।
स्कूल पहुँचने पर बच्चे शांतिपूर्वक शिक्षक की बातें सुन रहे थे, एक-दूसरे के साथ खेल रहे थे, नई-नई चीजें सीख रहे थे। नए दोस्त बनाकर उन्होंने साथ में खाने का आनंद लिया। खास बात यह थी कि बच्चों ने कहीं भी जिद नहीं की – “यह हम नहीं खाएँगे” ऐसा न कहकर उन्होंने खुद प्लेट ली, बैठकर अच्छा खाया और बाद में अपनी प्लेट खुद धोई।
सभी बच्चे आपस में मिलकर, खेलकर और सीखकर बहुत खुश हो गए। घर जाने का समय आया तो क्लोज़िंग में सभी ने एक साथ कहा –
“आज स्कूल में आकर बहुत अच्छा लगा, हम रोज़ स्कूल आएँगे!”
असोला – राखी का उत्सव – सीखने की नई दिशा
– प्राची बोरेकर

राखी पास आ रही थी और हम सबको बहुत उत्सुकता थी हमें भी और हमारे बच्चों को भी! आमतौर पर हम तैयार राखियाँ खरीदते हैं, लेकिन इस बार कुछ अलग करना था।
तो हमने और बच्चों ने तय किया – “राखी हम खुद बनाएँगे।” फिर क्या था, हमने और हमारे बच्चों ने मिलकर ‘Let Rakhi be a celebration of creativity’ इस सुंदर विचार पर आधारित प्रोजेक्ट शुरू किया।
शुरुआत में थोड़ी हिचकिचाहट थी – “क्या हमें राखी बनाना आएगा?” लेकिन जैसे ही शुरुआत हुई, माहौल रंग-बिरंगा होता गया। रंगीन कागज, मोती, चमचमाती लेस, रिबन… यह सब देखकर बच्चों की आँखें चमक उठीं। हर किसी ने अपनी-अपनी कल्पना से राखी बनाना शुरू किया। बच्चों की सृजनशीलता और उत्सुकता साफ झलक रही थी। कोई फूलों की राखी बना रहा था, कोई कार्टून का चित्र बना रहा था, तो कोई अक्षर लिखकर अपनी राखी को अलग बना रहा था। उनका उत्साह देखकर हमें भी बहुत अच्छा लगा। सच कहें तो उनकी राखियाँ हमारी बनाई राखियों से कहीं अधिक सुंदर और आकर्षक बनीं।
इस प्रक्रिया में एक मज़ेदार बात भी हुई। राखी बनाते समय हमने कई बार गलतियाँ कीं, लेकिन बच्चों ने ही हमें सिखाया, मार्गदर्शन दिया। जैसे भूमिकाएँ बदल गई हों – हम विद्यार्थी और वे शिक्षक! उनके चेहरे पर आत्मविश्वास देखकर हमारा थकान भी गायब हो गया। इस गतिविधि से हमें भी बहुत कुछ सीखने को मिला – धैर्य, टीमवर्क और सबसे महत्वपूर्ण, “एक साथ काम करने का आनंद।”
राखियाँ बन जाने के बाद दूसरा चरण शुरू हुआ – उन्हें बेचना। पहले लगा, “राखियाँ बेचना इतना आसान होगा क्या?” लेकिन बच्चों का उत्साह देखकर हमने धैर्य रखा। स्कूल की छुट्टियाँ थीं, धूप तेज़ थी, फिर भी बच्चों की ऊर्जा बनी रही। हम सबने मिलकर बेड़े पर राखियों का छोटा-सा स्टॉल लगाया। उस पल बच्चों की आँखों में चमक और चेहरों पर आत्मविश्वास साफ दिखाई दे रहा था।
लोग आते, राखियाँ देखते और बच्चे मीठी आवाज़ में पुकारते “दीदी, भैया, राखी लो! बहुत अच्छी राखी है, बच्चों ने बनाई है!” उनकी वह मासूमियत और आत्मीयता देखकर कई लोगों ने खुशी-खुशी राखियाँ खरीदीं।
धीरे-धीरे हमारी ज़्यादातर राखियाँ बिक गईं। हर बार जब कोई राखी खरीदता, तो बच्चों के चेहरों की खुशी शब्दों में बयान नहीं की जा सकती। वे क्षण हमारी यादों में हमेशा के लिए अंकित हो गए।
पूरा अनुभव हमारे लिए बहुत आनंददायक और सिखाने वाला रहा। शुरुआत में जो सवाल था “राखी कैसे बेचेंगे?” – वह धीरे-धीरे प्रयास करते-करते गायब हो गया। सच में, यह छोटा-सा अनुभव बच्चों के भविष्य के बड़े सपनों की ओर एक नई सीढ़ी बन गया।
इस प्रोजेक्ट से हमें समझ आया कि असली राखी सिर्फ एक धागा नहीं है, बल्कि रिश्तों को सँभालने, प्यार जताने और रचनात्मकता को बढ़ावा देने का एक सुंदर अवसर है।
यह अनुभव हमारी यादों में हमेशा रहेगा – क्योंकि राखी बेचकर हमने सिर्फ पैसे नहीं कमाए, बल्कि एकजुट होकर आनंद, आत्मविश्वास और नई सीख भी पाई।
बोथली – एक अनोखी पालक सभा
-रोहिणी कालभूत

बेडे पर काम शुरू हुए एक महीना हो गया था, लेकिन अभी तक अभिभावकों के साथ बैठकर ठीक से बात नहीं हुई थी। इसलिए अभिभावक सभा आयोजित करने का निश्चय किया।
इस सभा में मैं, एक शिक्षक के रूप में, पहली बार सभी अभिभावकों से संवाद करने वाली थी। मन में उत्सुकता और जिज्ञासा तो थी ही, पर थोड़ी-सी घबराहट भी थी – माता-पिता कैसी प्रतिक्रिया देंगे? उन्हें क्या लगेगा?
बच्चों के लिए चाहे कितनी भी व्यस्तता रही हो, फिर भी अभिभावक अपने समय में से थोड़ा समय निकालकर समय पर उपस्थित हुए। उनके लिए कुछ छोटी-छोटी गतिविधियाँ रखी थीं जैसे कि बलून गेम, ग्लास गेम। मन में शंका थी, क्या ये बड़े लोग ये खेल खेलेंगे?
लेकिन जब सबने मन से हिस्सा लिया, तो कुछ क्षणों के लिए ऐसा लगा कि बड़े लोग भी छोटे बच्चों की तरह आनंद में डूब गए हैं।
खेलों के बाद अभिभावक सभा की शुरुआत हुई। एक-एक करके मैंने सभी बच्चों की शैक्षणिक प्रगति और उनकी सीखने की रुचि के बारे में बताया। यह सुनते समय उनकी आँखों में एक अलग ही चमक थी – अपने बच्चों के साथ कुछ अच्छा हो रहा है, यह विश्वास उनके चेहरों पर साफ झलक रहा था। कुछ अभिभावकों ने प्रश्न पूछे, कुछ ने शंकाएँ व्यक्त कीं, और हमने उनके संतोषजनक उत्तर दिए।
सभा के अंत में, एक दीदी बोलीं “दीदी, आप बच्चों को जैसे भी पढ़ाओ, हम आपके साथ हैं… बस बच्चे पढ़ने चाहिए और आगे बढ़ने चाहिए!”
उनका यह वाक्य मेरे लिए एक विश्वास का बंधन बन गया। इस अभिभावक सभा के बाद अभिभावकों के साथ एक नया रिश्ता जुड़ा विश्वास का, सहयोग का और साथ मिलकर प्रगति करने का।
ठणठण – अजय और सपनों का स्कूल”
– प्रगती बांडेबुचे

पिछले छह हफ्तों से मैं ठनठन बेड पर भरवाड़ समुदाय के बच्चों को पढ़ा रही हूँ। हर दिन जब मैं इस स्कूल की ओर जाती हूँ, तो मन में अलग-अलग विचार आते हैं।
आज क्या पढ़ाना है? बच्चे कैसी प्रतिक्रिया देंगे? क्या उनके चेहरों पर मुस्कान देखने को मिलेगी? यहाँ हर दिन नए अनुभव और नए प्रसंग सामने आते हैं।
यह स्कूल एक छोटी-सी झोपड़ी में है। तारों की दीवारें, तिरपाल की छत और मिट्टी की ज़मीन पर बसा हुआ यह कक्षा। बाहर धूप की तपिश हो, बारिश की बूँदें गिर रही हों या हवा चल रही हो इस झोपड़ी के अंदर रोज़ एक नई दुनिया बसती है। क्योंकि यहाँ रोज़ बड़ी-बड़ी सपनों वाली आँखें चमकती हैं।
आज मेरी कक्षा में थोड़ा शोर था। बच्चे खेल रहे थे, कोई छेड़ रहा था, तो कोई गुनगुना रहा था। उन्हें शांत करने के लिए मैंने सवाल पूछा –
“तुम्हें बड़े होकर क्या बनना है?”
क्षणभर के लिए कक्षा में सन्नाटा छा गया। बच्चे एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तभी अजय नाम का एक लड़का धीरे से खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर थोड़ी झिझक थी, लेकिन आत्मविश्वास भी था। उसने कहा “मुझे यहाँ से पढ़कर बड़े स्कूल जाना है। फिर मुझे पुलिस बनना है।”
उसके ये सीधे मगर मज़बूत शब्द सुनकर पूरी कक्षा जैसे ऊर्जा से भर गई। किशन, संजू, हरेश सब बच्चे एक-एक कर खड़े होने लगे। कोई डॉक्टर बनना चाहता था, कोई शिक्षक, तो कोई इंजीनियर। उस पल ऐसा लगा जैसे इस छोटी-सी झोपड़ी से निकले सपने आसमान को छू रहे हों। दीवारें भले ही तारों की हों, लेकिन इन सपनों के आगे कोई दीवार नहीं थी।
बच्चों की बातों से मुझे एहसास हुआ कि साधन भले ही कम हैं, लेकिन उनकी जिद और सपने बहुत बड़े हैं। उनकी आँखों का आत्मविश्वास मेरे लिए सबसे बड़ा सबक था।
उस क्षण कक्षा का शोर ग़ायब हो गया। खेल-हंसी थम गई और सब बच्चे फिर ध्यान से पढ़ाई में लग गए। झोपड़ी में सिर्फ़ कॉपी-पेंसिल की खटपट सुनाई दे रही थी।
मेरे दिल में बस एक ही भावना उठ रही थी ये बच्चे ज़रूर अपने सपने पूरे करेंगे। क्योंकि सपने बड़े होते हैं, लेकिन उनसे भी बड़ा होता है उन्हें पूरा करने का साहस।