संकलन और संपादन – निकिता देवासे
असोला – बच्चों की बनाई दुनिया
सुषमा महारवाडे

हमारे असोला बेड़े पर दो अलग-अलग समुदाय हैं। भरवाड और पारधी। ये दोनों समुदाय अपनी खास परंपराओं और रहन-सहन के तरीके के लिए जाने जाते हैं।
हालाँकि दोनों समुदायों का अपना अलग-अलग तरीके से जीने का अंदाज है, लेकिन वे एक-दूसरे से काफी अलग है । कई वर्षों से, इन दोनों समुदायों के बच्चे एक-दूसरे से दूरी बनाए रखते थे। न तो वे साथ में खेलते थे, न ही स्कूल में एक साथ पढ़ते थे। अक्सर, उनके बीच झगड़े भी होते थे, जो उनके बीच की दूरी को और भी मजबूत कर देती थीं। भरवाड समुदाय के बच्चों में पारधी बच्चों की साफ-सफाई को लेकर हिचकिचाहट थी, जिससे वे एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने में कतराते थे। इस हालात को बदलने के लिए हमने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। हमने कक्षा में ऐसे उपक्रम काे करने का निर्णय लिया, जिनसे बच्चे समूह में काम करें और साथ में पढ़ें। हमने सामूहिक खेलों और ऐक्टिविटी को शामिल किया, प्रार्थना के समय दो भारवाड बच्चो के बीच एक पारधी समुदाय के बच्चे को बिठाना। जिससे बच्चों को एक-दूसरे के मिलजुल कर रहने का अवसर मिला। जैसे-जैसे समय बीतता गया, इन उपक्रमों का सकारात्मक असर दिखाई देने लगा।
शुरुआत में, भरवाड समुदाय के बच्चे पारधी समुदाय के मोहल्ले में जाने से डरते थे, लेकिन धीरे-धीरे उनके बीच की दोस्ती होने लगी। यह देखकर खुशी हुई कि अब भरवाड समुदाय की ज्योति, जिस दिन छुट्टी होती तो वह पारधी समुदाय की सुहानी के घर खेलने चली जाती। पहले जिन बच्चों के पास बैठने के लिए कोई तयार नहीं होता था, अब वो बच्चे एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खेलते हैं, और उनके बीच बातचीत भी होती है। इस बदलाव ने न केवल बच्चों के बीच एक नई दोस्ती को जन्म दिया, बल्कि दोनों समुदायों के बीच आपसी समझ और सहयोग की भावना को भी बढ़ावा दिया। अब, समय-समय पर दोनों समुदाय मिलकर त्योहार मनाते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं। यह बदलाव हम सभी के लिए एक सीख है कि मतभेदों के बावजूद, जब हम एक साथ मिलकर काम करते हैं, तो दोस्ती और सहयोग का एक नया सफर शुरू होता है।
चक्रीघाट – अकेले सफर – आत्मविश्वास की ओर
पल्लवी दोडके

जब हमारा चक्रिघाट बेडा स्थलांतरित होता है। एक जगह न होके अलग – अलग दिशाओ मे जाता है।
इस वजह से पूरा समुदाय अलग-अलग हिस्सों में बंट जाता है। इन बिखरे हुए बेड़े तक पहुँचना हमारे लिए एक बड़ी चुनौती बन जाता है। हमारा उद्देश यह है की बच्चों तक पहुँचना, उन्हें शिक्षा से जोड़े रखना और उनकी प्रगति पर नज़र रखना। हमारा सालभर का काम इन्हीं क्षेत्रों में चलता है। सामान्य दिनों में, जिस बेड़े पर ज़्यादा बच्चे होते, वहाँ मैं और मेरी को-फेलो कोमल, हम दोनों साथ जाया करते थे। लेकिन उन जगहों का ठीक से पता हमें शुरू में नहीं पता होता था। हम उनके दूध के गाड़ी में बैठकर, कभी सड़कों से, तो कभी खेतों के बीच से होते हुए, उनके पास पहुँचते थे।
लेकिन साल के अंत में एक बिल्कुल अलग चुनौती सामने आई और वो थी, इन बिखरे हुए बच्चों की एंडलाइन परीक्षा लेना। एंडलाइन यानी बच्चों की सालभर की प्रगति का अंतिम मूल्यांकन करना। पहले हम वहीं जाते जहाँ ज़्यादा बच्चे होते, लेकिन इस बार हमें हर बेड़े पर जाना था। भले ही किसी बेड़े पर सिर्फ एक ही बच्चा क्यों न हो, फिर भी वहाँ जाकर उसकी एंडलाइन परीक्षा लेना ज़रूरी था।
मुसीबत ये थी कि समय कम था, और बच्चे अलग-अलग दिशाओं में फैल चुके थे। अगर हम दोनों एक ही जगह जाते, तो समय बर्बाद होता। इसलिए हमने तय किया कि इस बार हम अलग-अलग दिशा में, अकेले जाएंगे। मेरी को-फेलो अलग बेड़े की ओर गई और मैं दूसरी दिशा में निकल पड़ी।
अकेले जाना मेरे लिए पहली बार था मन में हजारों सवाल थे ,मैं अकेली कैसे जाऊँ? रास्ता मिलेगा क्या? सुरक्षित लगेगा क्या ? लोग कैसे होंगे ? अगर कोई परेशानी आई तो क्या करूँगी? लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब ये सारे सवाल पीछे छूट गए, और एक ही सोच दिल में रह गई “मुझे बच्चों के लिए जाना है। “और फिर मैं निकल पड़ी। रास्ता अनजान था, लेकिन इस सफर मे ज चेहरे दिखे वो जाने पहचाने लग रहे थे। और मैं बेड़े तक पहुँच गई।
जब मैं उस बच्चों से मिली, उससे बातें कीं तब लगा कि घबराहट जैसे गायब हो गया थी । अब मैं उस समुदाय का हिस्सा महसूस कर रही थी।इस अनुभव ने मुझे बहुत कुछ सिखाया।मैं अकेली हूँ, इसका मतलब यह नहीं कि मैं कमजोर हूँ।
ठणठण – अभिव्यक्ति मेले की तैयारी और बच्चों का उत्साह
– पल्लवी शंभरकर

जब बच्चों को असोला अभिव्यक्ति मेले के बारे में बताया गया तो वे बहुत उत्साहित हो गए। छोटे से लेकर बडे तक सभी बच्चे पुछने लगे, “दीदी, कब जाना है? वहां क्या होगा?” बच्चों की आँखों मे जो चमक थी उसने माहौल को ही खुशनुमा बना दिया।
हमने यह भी सुनिश्चित किया कि बच्चों के घर जाकर माता-पिता को भी जानकारी दी जाए। हमने बताया कि हम 16 तारीख को असोला जाने वाले हैं। जब हमने होम विजिट की, तो देखा कि दीदी और भैया लोग भी उत्साहित थे। और सभी बच्चे पूरे उत्साह से डांस और लाठी-काठी की तैयारी में जुटे थे। लड़कियाँ रोज़ डांस प्रैक्टिस के लिए आ रही थीं। अगर कभी कोई लड़की नहीं आती, तो बाकी लड़कियाँ खुद उसे बुलाने जाती थी। यह जिम्मेदारी उन्होंने खुद ही ले रखी थी। इसी तरह लड़के भी लाठी-काठी की प्रैक्टिस के लिए समय पर आते और एक-दूसरे को बुलाकर लाते थे ।
जिग्नेश नाम का एक लड़का था जिसे शुरुआत में लाठी काठी में परेशानी होती थी। उसकी लाठी बार-बार गिरती थी। लेकिन वह हार नहीं मानता। वह रोज़ प्रैक्टिस करता और अब वह बहुत अच्छे से लाठी घुमा लेता है। उसकी मेहनत रंग लाई।
करीब एक महीने से भैया लोगों के साथ गाड़ी की व्यवस्था को लेकर बातचीत चल रही थी। सब यही कह रहे थे, “हो जाएगा, अभी तो समय है।” लेकिन जब असोला जाने में सिर्फ एक हफ्ता बाकी था, तब भी गाड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। क्योंकि सभी गाड़ियाँ चारा लेने जाती थीं। इससे बच्चों को भी चिंता होने लगी, “दीदी, हम असोला कैसे जाएंगे?”
फिर मैंने समुदाय के मुखिया सिद्धू भैया से बात की। उन्होंने सभी से बातचीत की, लेकिन कोई समाधान नहीं निकल पाया। कुछ ऐसी गाड़ियाँ थीं भी, तो उनके लिए ड्राइवर नहीं मिल रहा था।
5 तारीख को सुबह, मैं एक बार फिर सिद्धू भैया के पास गई और पूछा कि गाड़ी का कुछ इंतज़ाम हुआ क्या। उन्होंने कहा, “मैंने सभी से बात की, लेकिन नहीं हो पाया।” मेरे पास पहले से एक गाड़ीवाले का नंबर था। मैंने तुरंत उन्हें कॉल किया और उन्हें पूरी स्थिति समझाई। उन्होंने मदद के लिए हामी भर दी। जब मैंने यह बात बच्चों को बताई कि गाड़ी मिल गई है, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वे बहुत खुश थे, उछल-कूद कर रहे थे, और कह रहे थे, “दीदी, हम चलेंगे!”
राहुल का गणित का सफर: डर से आत्मविश्वास की ओर
सोनखांब – प्रीतम नेहारे

राहुल जब शुरुवात मे बेड़े पर आया था। तब वह पढ़ाई मे बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता था। लेकीन धीरे – धीरे से उसमे बदल दिखने लगा। सुरुवात के तीन महिने मे उसने अच्छेसे लिखना और पढ़ना सिख लिया।
लेकिन अचानक एक खेलते समय उसका हाथ टूट गया और वह स्कूल मे कम आने लगा। और अभी कुछ महीने ही हुए थे। की उसे पढ़ाई मे रुचि निर्माण होने लगी थी। और उसका पढ़ाई का सफर जैसे कहीं रुक सा गया।
महीने बीतते गए और उसकी पढ़ाई में गिरावट आने लगी। पढ़ाना मेरे लिए एक चुनौती बन गया था। लेकिन उसमें एक खास बात थी भले ही वह रुका था, फिर भी उसने दोबारा चलना शुरू किया। राहुल फिर से रोज़ स्कूल आने लगा और वहीं से उसकी असली तैयारी शुरू हुई।उसे सब कुछ फिर से सीखना था।
वह अक्सर कहता, “मुझे नहीं आता है।”उसका बड़ा भाई सुरेश उसे पढ़ते हुए देखता, तो उसे भी लगता कि “मुझे भी आना चाहिए।”राहुल हमेशा कहता, “मुझे सीखना है, लेकिन समझ नहीं आता। कोई मदद भी नहीं करता।”तब मैंने उससे कहा,”जब भी तुम्हें लगे कि कुछ समझ में नहीं आ रहा है, तो तुम मुझसे ज़रूर पूछो।
“एक खास बात ये थी कि राहुल को गणित थोड़ा कठिन लगता था। शुरुआत में तो उसे गिनती भी नहीं आती थी। लेकिन धीरे-धीरे उसने पहाड़े सीखे और गणित में आगे बढ़ने लगा। पहले उसने एक अंकों की जोड़-घटाव सीखी। फिर जब उसे दो अंकों के सवाल समझ में नहीं आते थे, तो मैंने उसे आसान तरीकों से समझाया। इस तरह उसके पढ़ाई के सफर को एक नया मोड़ मिला। पहले उसे गणित करने में बहुत डर लगता था, लेकिन जब वह गणित के सवाल हल करने लगा, तो उसकाआत्मविश्वास बढ़ गया। वह कहने लगा, “भैया, मुझे दो अंकों वाले सवाल दो!”फिर बोला, “अब तीन अंकों वाले दो!” और फिर वह तीन अंकों के सवाल भी आसानी से हल करने लगा। राहुल का गणित का सफर आसान नहीं था,लेकिन उसकी मेहनत के कारण वह अब गणित में मज़ा लेने लगा था।
उसे पढ़ाते समय, उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान और सीखने का जोश साफ दिखाई देता था।आज वह गणित कर रहा है, और हमेशा यही कहता है। “मुझे गणित चाहिए!”राहुल की पढ़ाई के सफर से एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए “सीखना कभी मत छोड़ो, सीखने का सही समय हमेशा होता है!